वृद्धि और विकास के अर्थ की व्याख्या करें वृद्धि और विकास के सिद्धांत क्या है?
वृद्धि और विकास के अर्थ की व्याख्या:-
वद्धि तथा विकास को समानार्थक अर्थ में प्रयोग किया जाता है। निःसंदेह ये दोनों ही शब्द आगे बढ़ने की ओर ही संकेत करते हैं परंतु मनोवैज्ञानिक दष्टि से इन दोनों में कुछ अंतर है। वृद्धि तथा विकास के अर्थों को समझने के लिए इनके अंतर को समझना आवश्यक होगा । सामान्य रूप से वृद्धि शब्द का प्रयोग कोशीय वृद्धि (Celluar Multiplication) के लिए किया जाता है, जबकि विकास शब्द का प्रयोग वृद्धि के फलस्वरूप शरीर के समस्त अंगों में आए परिवर्तनों के संगठन से है। निःसंदेह विकास में वृद्धि का भाव सदैव निहित रहता है, परंतु यह वृद्धि से व्यापक होता है ।
मेरीडिथ के अनुसार-
“कुछ लेखक अभिवृद्धि का प्रयोग केवल आकार की वृद्धि के अर्थ में करते हैं और विकास को भेदीकरण या विशिष्टीकरण के अर्थ में।"
हरलॉक के शब्दों में-
"विकास बड़े होने तक ही सीमित नहीं है वरन् इसमें प्रौढावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है। विकास के फलस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ तथा नवीन योग्यताएँ प्रकट होती हैं।"
मनरों के अनुसार-
“विकास परिवर्तन की वह अवस्था है जिसमें प्राणी गर्भावस्था मे परिपक्वता तक गुजरता है।"
विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन क्षमताएँ प्रकट होती हैं। विकास के अंतर्गत दो परस्पर विरोधी प्रक्रियाएँ होती हैं जो निरन्तर जीवन पर्यन्त चलती रहती हैं। ये हैं-वृद्धि (Growth अथवा Evolution) तथा क्षय (Atrophy अथवा Involution)। ये दोनों प्रक्रियाएँ गर्भकाल से प्रारम्भ हो जाती हैं तथा मृत्यु पर समाप्त हो जाती हैं। प्रारम्भिक वर्षों में वृद्धि की प्रक्रिया तीव्र गति से होती है, जबकि क्षय प्रक्रिया अत्यंत मन्द गति से चलती है। जीवन के अन्तिम वर्षों में क्षय प्रक्रिया तीव्र गति से चलती है, जबकि वृद्धि प्रक्रिया की गति अत्यंत मन्द हो जाती है ।
वृद्धि और विकास के सिद्धांत क्या है? :-
गैरिसन तथा अन्य के अनुसार:-जब बालक विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तब हम उनमें कुछ परिवर्तन देखते हैं। अध्ययनों ने यह सिद्ध किया कि या परिवर्तन निश्चित सिद्धांतों के अनुसार लेता है इन्हीं को सिद्धांत कहा जाता है।
१.निरंतर विकास का सिद्धांत:-
इस सिद्धांत के अनुसार विकास की जो प्रक्रिया होती है वह बिना रूके निरंतर चलती रहती है पर यह गति कभी तीव्र और तो कभी धीमी होती है उदाहरण के लिए प्रथम 3 वर्षों तक बालक की विकास की प्रक्रिया तीव्र होती हैं और मंद पड़ जाती है इसी प्रकार शरीर के कुछ भागों का विकास तीव्र गति से और मंद गति से होता है पर विकास की प्रक्रिया चलती अवश्य रहती है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता है स्किनर के अनुसार: "विकास प्रक्रियाओं के निरंतरता का सिद्धांत केवल इस तथ्य पर बल देता है कि बालक की शक्ति पर कोई अचानक या अकस्मात परिवर्तन नहीं होता।"
२. विकास के विभिन्न गति का सिद्धांत:-
डग्लस एवं हॉलैंड के अनुसार : "इस सिद्धांत का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है विभिन्न व्यक्तियों के विकास की गति में विभिन्नता होती है और यह विभिन्नता विकास के संपूर्ण काल में यथावत बनी रहती है। और जो छोटा होता है वह साधारणतः का छोटा ही रहता है।"
३. विकास क्रम का सिद्धांत:-
इस सिद्धांत के अनुसार बालक का गाना और भाषा संबंधी आदि विकास एक निश्चित क्रम में होता है शर्ले, गेसेल, पियाजे, एमिस इत्यादि की परीक्षाओं ने यह बात सिद्ध कर दी है। 32 36 माह का बालक वृत को उल्टा 60 माह का बालक वृत्त को सीधा और 72 माह का बालक वृत्त को फिर उल्टा बनाता है।
इसी प्रकार से बालक जन्म के समय केवल रोना ही जानता है जब वह 3 माह का हो जाता है तो वह गले से एक विशेष प्रकार की आवाज निकालता है और 6 माह में वह अंदर की ध्वनि भी निकालना सीख जाता है उसके बाद 7 माह में बालक अपने माता-पिता के लिए दा,मा,पा आदि शब्दों का प्रयोग करने लगता है।
4. विकास दिशा का सिद्धांत:-
इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास सिर से पैर के दिशा में होता है उदाहरण: अपने जीवन के प्रथम सप्ताह में बालक केवल अपने सिर को उठा पाता है पहले 3 माह में वह अपने नेत्रों की गति पर नियंत्रण करना सीख जाता है छठे माह में वह अपने हाथों की गतियों पर अधिकार कर लेता है। 9वें माह में सहारा लेकर बैठने लगता है। 1 साल में वह स्वयं बैठने, घिसक कर चलने लगता है 1 वर्ष का होने पर वह अपने पैरों पर नियंत्रित कर लेता है और वह खड़ा होने लगता है इस प्रकार जो शिशु अपने जन्म के प्रथम सप्ताह में केवल अपने सिर को उठा पाता था वही बालक 1 वर्ष के बाद खड़ा होने लगता है और 18 माह के बाद चलना भी शुरू कर देता है।
5. एकीकरण का सिद्धांत:-
इस सिद्धांत के अनुसार बालक सबसे पहले अपने संपूर्ण अंगों को फिर एक अंग के भागों को चलाना सीखना है उसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है। उदाहरण के रूप में देखे तो बालक पहले पूरे हाथ को खिलाता है फिर उंगलियों को उसके बाद फिर हाथ एवं उंगलियों को एक साथ चलाने सीखता है।
6. परस्पर संबंध का सिद्धांत:-
इस सिद्धांत के अनुसार बालक के शारीरिक विकास के साथ उसकी रूचि हो अध्ययन के केंद्रीय कारण और व्यवहार में परिवर्तन होते हैं तब साथ-साथ उसमें गामक और भाषा संबंधी विकास भी होता है। गैरिसन तथा अन्य के अनुसार:- शरीर संबंधी दृष्टिकोण व्यक्ति के विभिन्न अंगों के विकास में सामंजस्य और परस्पर संबंध पर बल देता है।
7. व्यक्तिक विभिन्नताओं का सिद्धांत:-
इसके अनुसार प्रत्येक बहाना और बालिका के विकास का स्वयं का स्वरूप होता है। इस स्वरूप में व्यक्तिक विभिन्नताएं पायी जाती हैं। एक ही आयु के दो बालको दो बालिकाओं या एक बालक और एक बालिका के शारीरिक मानसिक सामाजिक आगे विकास में व्यक्तिक विभिन्नताओं की उपस्थिति स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। स्किनर के अनुसार विकास के स्वरूप में व्यापक व्यक्तिक विभिन्नताएं होती है।
8. समान प्रतिमान का सिद्धांत:-
समान प्रतिमान का सिद्धांत के अनुसार हरलॉक ने ये कहा कि वे सभी जाति चाहे वह पशु जाति के हो या मानव जाति के हो वे अपन जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती हैं। जैसे संसार के भी कोने में किसी भी मानव जाति के शिशु का विकास का एक ही प्रतिमान में होता है बालक के विकास में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है।
9. सामान्य एवं विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत:-
इस सिद्धांत के अनुसार एक बालक का विकास समान प्रतिक्रियाओं की ओर होता है जैसे उदाहरण के रूप में देखें तो एक नवजात शिशु किसी भी एक अंग को चलाने से पहले अपने पूरे शरीर का संचालन करता है ठीक इसी प्रकार किसी विशेष वस्तु की ओर इशारा करने से पहले अपने हाथ को उस स्थिति में लाता है। हरलॉक के अनुसार विकास की सभी अवस्था में बालक की प्रतिक्रियाएं विशिष्ट बनने के पूर्व सामान्य ही होती है।
10. वंशानुक्रम या वातावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत:-
बालक का विकास बालक का विकास न केवल वंशानुक्रम के कारण और न केवल वातावरण के कारण वरन् दोनों ही अंतः क्रिया के कारण होता है।
स्किनर के अनुसार:- या सिद्धांत किया जा चुका है कि वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है इसी प्रकार या भी प्रमाणित किया जा चुका है कि जीवन के प्रारंभिक वर्षों में दूषित वातावरण कुपोषण या गंभीर रोग जन्मजात योग्यताओं को निर्भर बना सकते हैं।
11.सह- संबंध का सिद्धांत:-
इस सिद्धांत के अनुसार बालक के गुणों का अधिकांश गुणों में सह-संबंध दिखाई देता है। उदाहरण के रूप में देखे तो जो बालक 1 गुण के विकास में तीव्र या बहुत तेज होता है वह दूसरे गुण के विकास में भी ठीक उसी प्रकार से तीव्र हो जाता है और जिस बालक के 1 गुण के विकास में धीमी या मंद पड़ जाता है वह दूसरे गुण के विकास में भी मंद पड़ने लगता है। जिस बालक का बौद्धिक विकास सामान्य से ऊपर रहता है उसका आकार, लंबाई, सामाजिकता ऊंचाई के विकास में भी श्रेष्ठ होने लगता है और जिस बालक का बौद्धिक विकास सामान्य से नीचे होने लगता है है उस बालक के विकास के अन्य क्षेत्रों में भी प्राय: सामान्य से नीचे हो जाता है।